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बांस की लकड़ी और पितृदोष का कारण, जानिए क्यों नहीं जलाते बांस

जानिए हिंदू धर्म में बांस की लकड़ी को जलाना क्यूँ वर्जित है?

धर्म/ज्योतिष। आपने हवन-पूजन या दाह संस्कार के लिए सामर्थ्य अनुसार लोगों को विभिन्न प्रकार की लकड़ियों को जलाने के प्रयोग में लाते हुए देखा होगा पर क्या आपने कभी किसी काम में बांस की लकड़ी को जलता हुआ देखा है ? नहीं ! आखिर ऐसा क्यों??

भारतीय संस्कृति, परंपरा और धार्मिक महत्व के अनुसार, ‘हमारे शास्त्रों में बांस की लकड़ी को जलाना वर्जित माना गया है।

यहाँ तक कि हम अर्थी के लिए बांस की लकड़ी का उपयोग तो करते हैं लेकिन उसे चिता में जलाते नहीं।

हिन्दू धर्मानुसार बांस को जलाने से पितृ दोष लगता है।

वहीं जन्म के समय जो ‘नाल’ माता और शिशु को जोड़ के रखती है, उसे भी बांस के वृक्षो के बीच मे गाड़ते है ताकि वंश सदैव बढ़ता रहे।

क्यूँकि बाँस प्रतिकूल परिस्थितियों में भी भरपूर वृद्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं और किसी भी प्रकार के तूफानी मौसम का सामना करने का सामर्थ्य रखते हैं।

भगवान श्री कृष्ण को भी आपने अक्सर ‘बांसुरी’ बजाती हुई मुद्रा में मूर्ति और चित्रों में देखा होगा जो कि बांस से ही बनी होती है।
वास्तु विज्ञान में भी बांस को शुभ माना गया है। तभी घरों में Bamboo Tree रखने की सलाह दी जाती है शादी – ब्याह में आपने बांस से बने मण्डप भी देखें होंगे।

जनेऊ, मुण्डन आदि में बांस की पूजा देखी होगी पर शायद ही हमने कभी इस बात पर ध्यान दिया हो की आजकल अगरबत्तियों को बनाने में भी बाँस की लकड़ी का उपयोग किया जाता है।
जो कि स्वस्थ्य की दृष्टि से बहुत ही हानिकारक है और लोगों के असामयिक बीमारी और मृत्यु का कारण भी बन सकता है।

जानिए क्यूँ है बांस को जलाना अत्यंत हानिकारक –

वैज्ञानिक कारण बांस में लेड व हेवी मेटल प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। लेड जलने पर लेड ऑक्साइड बनाता है जो कि एक खतरनाक न्यूरो टॉक्सिक है हेवी मेटल भी जलने पर ऑक्साइड्स बनाते लेकिन जिस बांस की लकड़ी को जलाना शास्त्रों में वर्जित है। उसे जलाने से यह सब होता है।

यहां तक कि चिता मे भी नही जला सकते, उस बांस की लकड़ी को हमलोग रोज़ अगरबत्ती में जलाते हैं। अगरबत्ती के जलने से उतपन्न हुई सुगन्ध के प्रसार के लिए फेथलेट (Phthalate) नाम के विशिष्ट केमिकल का प्रयोग किया जाता है। यह एक फेथलिक एसिड ( Phthalic acid) का ईस्टर होता है जो कि साँस के साथ शरीर में प्रवेश करता है,

इस प्रकार अगरबत्ती की तथाकथित सुगन्ध न्यूरोटॉक्सिक एवं हेप्टो टोक्सिक को भी साँस के साथ शरीर मे पहुंचाती है। इसकी लेश मात्र उपस्थिति कैन्सर अथवा मष्तिष्क आघात का कारण बन सकती है। हेप्टो टॉक्सिक की थोड़ी सी मात्रा लीवर को नष्ट करने के लिए काफ़ी होती है।

शास्त्रो में पूजन विधान में कही भी अगरबत्ती का उल्लेख नही मिलता, हर स्थान पर धूप, दीप, नैवेद्य का ही वर्णन मिलता है।

अगरबत्ती का प्रयोग भारतवर्ष में इस्लाम के आगमन के साथ ही शुरू हुआ है। मुस्लिम समुदाय अगरबत्ती मज़ारों में जलाते हैं, और हमने बिना उसके बुरे परिणामों को जाने अंधानुकरण किया, जब कि हमारे धर्म की हर एक बात वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार भी उतनी ही खरी और सत्य है और मानवमात्र के कल्याण के लिए ही बनी है।

इस लिए अगरबत्ती की जगह धूप का ही उपयोग करें।

प्रधान संपादक- कमलगिरी गोस्वामी

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